देहरादून से मंसूरी जाते हुऐ काफी देर बाद बस के रूकते ही चाय व नाश्तेि की तलब में लगभग बस की हर सवारी नीचे उतर कर टाट की होटलनुमा चाय की दुकान के सामने सिमट गई , जहां बडी भटटी पर छोटी छोटी केतली में चालू और महाराजा के नाम से दो दाम की चाय बन रही थी ,सामने अलग अलग कांच की बरनीयो में बिस्कुाट, चाकलेट, तोश, ब्रेड रखे थे , आठ नौ साल का एक स्मा इलिग फेश का लडका पैंबद लगी निकर व हल्की महीन कमीज पहने ठंड से बेखौफ अपनी उगलीयो में चार चार गिलास गर्म चाय लिऐ दोड दोड कर सर्व कर रहा था और उतनी ही तेजी से खाली हो रहे गिलास को टंकी के पानी में खंगाल भी देता था, लकडी की पटिया ही टेबल कुर्सी थे , इस होटल का वेटर, स्प लायर , नौकर सब कुछ यही लडका था, व चाय बनाने वाला शक्सै मालिक, गा्हक किसी टूरिस्ट बस के रूकने से ही आते थे बाकी कुछ खास आबादी का क्षेत्र तो था नही ,
बुधवार, 3 अगस्त 2011
अपनी दुकान ........
अगर आपको सुना दिखा सब सही लगता हैं तो निश्चय ही आप मुझसे असहमत होगें, क्योकी मेरी अब तक की जिन्दगी के अनुभवो में पांखण्ड ही ज्यादा नजर आया किसी ने रिश्तो की रस्म अदायगी की, तो किसी ने फर्ज या दायित्व कह कर टाल दिया , गरीब हो कर सीखा की मेहनत से आदमी अमीर होता हैं पर अमीर मेहनत कराने वाला हुआ, धूप,बरसात,गर्मी और ठंड में जी तोड मेहनत करता मजदूर गरीब ही रहा, बाजार में बचत करके अमीर होने की बात भी खारिज हो गई क्योकी यहां भी खर्च करने वाला ही अमीर हैं, जनप्रिय की कसौटी पर जनप्रतिनीधि ज्यादा ही जनता से दूर हैं ,सर्वव्यापी भगवान भी बेबस हैं उनके कपाट खुलने बन्द होने नाहने ,वस्त्र धारण, भोग का वक्त भी धर्म के ठेकेदारो द्वारा निर्धारित किया जा रहा हैं सरकारी दफतरो की तरह यहां भी सुविधा शुल्क हैं , डाक्टर मरने तो नही देता तो ठीक भी नही होने देता , वकील हारने नही देता तो जीतने भी नही देता, गुरू का दर्जा कर्मचारीयो जैसा हैं,और इस तरह जब सच न दिखे तो झूठ भी क्यो टिके .......? ब्लागिग में मेरा यही मिशन हैं .....
जन्मदिन 30 अक्टुबर 1968
स्थान भिलाई

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