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बुधवार, 3 अगस्त 2011

अपनी दुकान ........

देहरादून से मंसूरी जाते हुऐ काफी देर बाद बस के रूकते ही चाय व नाश्तेि की तलब में लगभग बस की हर सवारी नीचे उतर कर टाट की होटलनुमा चाय की दुकान के सामने सिमट गई , जहां बडी भटटी पर छोटी छोटी केतली में चालू और महाराजा के नाम से दो दाम की चाय बन रही थी ,सामने अलग अलग कांच की बरनीयो में बिस्कुाट, चाकलेट, तोश, ब्रेड रखे थे , आठ नौ साल का एक स्मा इलिग फेश का लडका पैंबद लगी निकर व हल्की महीन कमीज पहने ठंड से बेखौफ अपनी उगलीयो में चार चार गिलास गर्म चाय लिऐ दोड दोड कर सर्व कर रहा था और उतनी ही तेजी से खाली हो रहे गिलास को टंकी के पानी में खंगाल भी देता था, लकडी की पटिया ही टेबल कुर्सी थे , इस होटल का वेटर, स्प लायर , नौकर सब कुछ यही लडका था, व चाय बनाने वाला शक्सै मालिक, गा्हक किसी टूरिस्ट बस के रूकने से ही आते थे बाकी कुछ खास आबादी का क्षेत्र तो था नही ,



बस का हार्न बजते ही जल्दू भीड छट गई, हमने भी चाय पीने के बाद उसके हाथ रूपये रख दिऐ, वह पूरी फूर्ति से चन्दज मिनटो कुछ रेजगारी चिल्हटर लेकर वापस आ गया, हमने शहरी होटल के टिप्सर की दर्ज पर एक सिक्काो उसकी ओर बढा दिया, वह पहले तो सकपकाया फिर कनखियो से मालिक की तरफ देखने हुऐ आनाकानी करने लगा, हमारे अधिकारपूर्ण आग्रह व मालिक की सहमति से उसने सिक्काआ लिया और दोड कर मालिक को देते हुऐ अपनी ही दुकान से 4;6बिस्कुिट खरीद कर गर्म भटटी के पास बैठ कर खाने लगा.............................

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