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शनिवार, 14 जून 2014

सीता : शूर्पनखा

बदायू में शौच के लिऐ गई जुडवां बहनो के रेप के बाद खेत के पेड पर लटकाने कि घटना पर जनाक्रोश में आश्‍चर्यजनक ठंडक देखने को मिली, मीडिया भी अखिलेश सरकार को इस तरह कोस रहा था जैसे फेल बच्‍चे के अभि‍भावक स्‍कूल प्रशासन को कोसते हैं, जिस तरह दोनो बच्‍चीया आर्थिक रूप से कमजोर, शहरी हवा से दूर,जीवन की बुनियादी अधिकार से वंचित रहते हुऐ पुरूषसत्‍ता का शिकार हो गई, निसंदेह वह हमारी समूचे सवा सौ करोड के लोकतंत्र के मुंह पर तमाचा हैं जब हमारे पास प्रजातांत्रिक सरकार है , पुलिस है,  कानून व्यवस्था है ,  विश्व की सबसे ज्‍यादा अनुभवी और गौरवशाली सभ्यता है,  सबसे बडा और परिपक्‍व संविधान है , हम हजारो करोड खर्च करके सरकार बनाते हैं और वह इस तरह कि घटना की वजह से निकम्‍मी और बेकार दिख रही हैं,  लोगो की बुनियादी जरूरते मसलन स्‍वास्‍‍थ, शिक्षा, रोजगार सडक शौचालय तक नही दे सकती हैं, राजनैतिक की राजशाही सोच ऐसी की सायकल लेपटाप, सस्‍ते चावल, मोबाइल बाटकर अपना पालतू  वोटर बना रहे हैं, क्‍या ये हमारे प्रसाशनिक ढिलाई का नमूना नही कि जिस वर्दी को देख कर पुरा गांव सहम जाता था आज वही वर्दी शाम होते ही मयखानो में अपराधियो के साथ गले में हाथ डाल कर अपनी हिस्‍सा बटोरती हैं, तलाश लीजिऐ कहीं एक ऐसा अपराधी मिल जाऐ जिसका राजनीतिज्ञ या पुलिस से याराना न हो , नहीं तो वह पक्‍का इन दोनो का फंसाया या कदाचार कर शिकार हैं , कहां हैं प्रशासनिक खौफ ?
देश के किसी थाने में बिना राजनैतिक दलाली के कोई सुनवाई नही, पटिटया छाप नेताओ के लिऐ पलक पवारे पसारे बैठे पुलिस प्रशासन को तो पुरे समय अपनी नियुक्ति और वसूली की चिन्‍ता सताऐ रहती हैं क्‍या ये सच नही कि एम पी , एम एल ए के चुनावी खर्च से लेकर बच्‍चे के जन्‍मदिन के आयोजन के लिऐ पुलिस प्रशासन को सडको पर वसूली के लिऐ उतरना पडता हैं , देश में कौन सा तंत्र हैं जहां फरियादी दरखास्‍त करे , गली का अखबार हाकर से लेकर मीडिया मालिक सब को तो पेट से ज्यादा पेटी की चिन्‍ता खाऐ जा रही, अपराध और अपराधी से ध्‍यान हटा कर पुलिस ,प्रशासन को कोस कोस कर रोटी सेंकने वाले राजनैतिक मलाई पर मदमस्‍त मीडिया चैनल , किसी अखबार या सरकारी दरबार में कर के देख लो, ये शिकायत आरोपीयो की दलाली में लग जाऐगें आप जान बचाते भागोगे, इन्‍हे दिल्‍ली के निर्भया जैसी ग्‍लेमर से लिपटी टी आर पी , बदायू की देहाती या बस्‍तर की आदिवासी नाबालिग बच्‍चीयो के दर्दनाक बालात्‍कार और हत्‍या में नजर नही आती, इसी तरह जो तेरा हैं वो मेरा हैं कहकर पिज्‍जा बर्गर सी लिपटी  मोमबत्‍ती जलाने वाली जमात कैमरे में श‍‍क्‍ले  कैद होने के ईशारे मात्र से ही मानसिक खोने की स्थिती के समान बाल नोंचने , सडक पर लोटने , चिखने चिल्‍लाने लगती हैं , न्‍याय,महीला अधिकार, नारी अस्मिता की बाते करने लगती हैं , कैमरे के मुंह मोडते ही एक कुटिल मुस्‍कान के साथ बडे सलिके से बाल और कपडे सहेजते हुऐ बैठ कर बेसलरी बाटल गटकने लगते हैं अपनी मस्‍ती में गुम , क्‍या ये सच नही कि प्रगतिशीलता की दिग्भ्रित सोच में मर्यादा और संस्‍कार को हमने ताक पर रख दिया, क्‍या सचमुच हम और हमारा समाज आज भी दरबार में प्रतियोगिता के ईनाम की तरह रखी सीता, जिसकी इच्‍छा और वर के चाल चरित्र और चेहरे का कोई महत्व नही, जो जीते उसे ले जाऐ, के पक्ष में  खडे होने के बजाय उस एक राक्षस प्रवति की सशक्त और खूबसूरत  शूर्पनखा ( सुरूपनखा ) के साथ खडे हैं, जो नाम मात्र के लिऐ सिर से लेकर पांव के नख तक अपने समय की सबसे सुंदर होने का घमड लिये जी रही हैं, जिसे अपनी इच्‍छा से जीवन साथी चुनने का अधिकार हैं, फिर मेरी संवेदनाऐ बार बार झकझोरती हैं कि क्‍या अपेक्षाकत आर्थिक कमजोर, अशिक्षित, सामन्‍य त्‍वचा कि जिन बच्‍चीयो तक चेहरे कि डेटिग पेंटिग की सूविधा नही पहुच पाई हैं उनके प्रतिहम, हमारा समाज , सरकार, शासन, प्रशासन सब इसी तरह बलात्‍कार के बाद.पेडो पर लटकते देख कर भी बेरुख ही रहेगी...  ............
                                                               सतीश कुमार चौहान
                                                                 13/6/2014

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