ब्लागर की दुनिया में आऐ अभी ठीक ठाक छ महीना भी नही हुआ, पर यहां का हाल भी कुछ सही नही लगते कुछ लठैत व कुछ पटीयाछाप लोगों का गिरोह यहां भी घुस गया हैं, हिन्दी साहित्य की तरह पढने वालो के बजाय हांकने और गरियाने वाले कही ज्यादा हैं, लगता हैं कि जल्द ही ब्लाग का हाल बडा बुरा होने वाला हैं,
चलिऐ दिमाग हल्का करने लिऐ एक किस्सा सुनाते हैं....... बात उन दिनो की हैं जब पैसे का महत्व कुछ ज्यादा ही था, कार तो दूर फटफटी भी काफी कम थी, हमारे यहां तो घर की शान सायकिल ही थी जिसे सजा कर रखा जाता था,पिताजी चलाने नही देते थे, और यौवन की चौखट पर कदम रखते हुऐ हम हिन्दी फिल्मो और सायकल के दिवाने थे, फिल्म की टिकट के लिऐ एक रूपये साठ पैसे और घर से दूर टाकीज जाने के लिऐ सायकल मिल जाऐ तो बस अपनी तो बल्ले बल्ले...... ऐसा होता बहुत कम था, रिजल्ट के बाद ऐसा हो गया, फिल्म थी उजाला, जिसमें गीत था
तेरा जलवा जिसने देखा वो तेरा हो गया , मैं हो गई किसी की कोई मेरा हो गया ,
गीत पर लोग चिल्ला रहे थे झूम रहे थे नाच रहे थे कुछ अतिउत्साह में पर्दे पर चिल्हर पैसे फैंक रहे थे हम भी उत्साह में आकर अन्जाने में पाकेट से पैसे के बजाय हमारे घर की शान पिताजी की दुलारी सायकल की चाभी फैंक चुके थे
अब हालात आप खुद समझ सकते हैं _____
सतीश कुमार चौहान, भिलाई


3 टिप्पणियां:
theatre ke jalwe kaa to mujhe pataa nahi lekin ghar aane ke baad papa ji ne aapke saath kya jalwe bikhaere honge iskaa mujhe halkaa-halkaa andaazaa hain.
bahut badhiyaa likhaa aapne.
thanks.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
हा हा हा. तेरा जलवा जिसने देखा ...........
ha ha, ekdam sahi hai
एक टिप्पणी भेजें